डॉन रिपोर्टर, उज्जैन।
मध्यप्रदेश के उज्जैन शहर में दो दिनों के भीतर अवैध शराब के सेवन से 14 लोगों की मौत हो गई। अब ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि जिस प्रदेश में अधिमान्य पत्रकारों की वैध मदिरा दुकानों के ठेके हो, नगर निगमकर्मी खुद जहरीली अवैध शराब के निर्माता हो, नेताओं के गुर्गे अहाते चलाते हो, पुलिस व प्रशासन की आंखों पर लालच की पट्टी बंधी हो, तब ऐसे में जहरीली शराब के सेवन से 14 मौतों का असली जिम्मेदार कौन है ?
वैसे इन मौतों के जिम्मेदार का पता लगाने के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने एसआईटी गठित कर दी है लेकिन फिर सवाल वहीं खड़ा हो जाता है कि जांच के बाद भी क्या फिर इस एसआईटी को यही आरोपी सिकंदर (निगमकर्मी), युनूस व गब्बर (निगमकर्मी) दिखाई देंगे, जिनके खिलाफ पुलिस ने धारा 328, 304 व 34 के तहत मुकदमा दर्ज किया है। या फिर वे भी नजर आएंगे जो अवैध शराब के जहर में असली जिम्मेदार हैं ?
आप करें तय इन मौतों में असली जिम्मेदार कौन ?
प्रशासन- वैध-अवैध शराब विक्रय पर नियंत्रण व सख्ती के लिए आबकारी पुलिस मुख्य रूप से जिम्मेदार होती है। इस पुलिस को आम पब्लिक ज्यादातर नहीं पहचानती लेकिन हर वैध-अवैध शराब कारोबारी इसके तौर तरीके से अच्छा-खासा परिचित रहता है। इस आबकारी विभाग या फिर पुलिस पर सीधे तौर पर प्रशासन का नियंत्रण रहता है। इस मामले में आबकारी की अपेक्षा जिला पुलिस ज्यादा बदनाम है क्योंकि जिला पुलिस मैदान में ड्यूटी देकर कार्यवाही करती दिखाई देती है जबकि आबकारी पुलिस के पास सिर्फ शराब के कारोबार पर ही नियंत्रण का भार रहता है।
पुलिस- जिला पुलिस पर संपूर्ण सुरक्षा की जिम्मेदारी रहती है। शराब के वैध-अवैध कारोबार में ये दोषियों के खिलाफ आबकारी एक्ट की धाराओं में भी कार्यवाही कर सकती है लेकिन हाल ही में प्रदेश के एक आईपीएस अफसर की वायरल हुई ऑडियो रिकार्डिंग से पुलिस की कार्यशैली पर भी सवालिया निशान खड़े हुए है। इस रिकार्डिंग में एक शराब ठेकेदार एडीजी स्तर के पुलिस अधिकारी को ऐसे धमका रहा है, जैसे वे होमगार्ड के जवान हो।
अधिमान्य पत्रकारिता कार्डधारी- शिवराज सरकार के 15 साल के शासन में ही स्पष्ट हो गया था कि सरकार के सील-ठप्पे द्वारा जारी राज्य, जिला या तहसील स्तरीय अधिमान्य पत्रकार भी शराब की दुकानें संचालित करते हैं क्योंकि तब शिवराज सरकार के आदेश पर ही ग्वालियर के शिवहरे शराब ग्रुप पर दबिश दी गई थी। तब यहां से 12-15 राज्य, जिला व तहसील स्तरीय अधिमान्य पत्रकार उनकी भोजन शाला में घुइयां छीलते, हरी मैथी तोड़ते, आटा गूथते, कबाड़े से खाली वारदान बटोरते व काउंटर पर शराब बोतले डिलेवरी करते पकड़े गए थे। स्पष्ट है कि जब अधिमान्य पत्रकारों की खुद की शराब दुकानें होंगी, तो वैध-अवैध शराब कारोबार की कलाई कौन खोल सकेगा। वैसे शासन के नियम के तहत प्रशासन या पुलिस का कोई भी अधिकारी या कर्मचारी नौकरी पर रहते हुए शराब के ठेके नहीं ले सकता लेकिन इसके ठीक उलट सरकार द्वारा घोषित कई अधिमान्य पत्रकारिता कार्डधारी शराब की दुकानें संचालित कर रहे हैं।
मृतक मजदूर- शराब के वैध कारोबार से सरकार को अच्छा-खासा राजस्व प्राप्त होता है। ये राजस्व प्रदेश की बेहतरी के लिए ही खर्च होता है। प्रशासन-पुलिस के नियंत्रण में हर वर्ग को ध्यान में रखकर शराब बनाई जाती है। इनमें मजदूर वर्ग को ध्यान में रख कर देशी शराब बनाई जाती है। प्रशासन द्वारा नियंत्रित इस शराब में टेस्टिंग का पूरा ध्यान रखा जाता है कि इसमें कितना अल्कोहल रखा जाए या कितना पानी या फिर अन्य खाद्य पदार्थ। इसकी कीमत भी मजदूर वर्ग की जेब को ध्यान में रख कर तय की जाती है। लॉकडाउन के पहले देशी शराब की बोतल 150 रुपए से भी कम थी लेकिन लॉकडाउन समाप्ति के बाद अब इसी बोतल की कीमत 300 रुपए कर दी गई। जिस पर अब इस देशी शराब पर मध्यमवर्गीय सुरा प्रेमियों ने कब्जा जमा लिया है और मजदूर वर्ग पैसे की बचत के खातिर जान जोखिम में डाल कर अवैध जहरीली सस्ती शराब खोजने को मजबूर हैं।